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*प्रलेस की पुस्तक ‘गूँज’ के विमोचन समारोह में गंभीर विवाद, पीड़िता की माँ ने बुद्धिजीवी वर्ग पर संवेदनहीनता का आरोप लगाया*

 


रिपोर्ट @मिर्जा अफसार बेग 

अनूपपुर, । सामाजिक कार्यकर्ता वार्ड क्रमांक 2 के पार्षद संजय चौधरी ने बताया कि 30 नवंबर 2025 को

होटल मंदाकिनी में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) की पुस्तक ‘गूँज’ के विमोचन समारोह ने आज साहित्यिक उत्सव की जगह विवाद का रूप ले लिया। कार्यक्रम के दौरान उपस्थित एक आरोपित व्यक्ति को लेकर प्रतिभागियों एवं सामाजिक वर्ग के बीच तीखी बहस और विरोध की स्थिति उत्पन्न हो गई।

*विवाद की शुरुआत कैसे हुई?*

कार्यक्रम के दौरान यह जानकारी सामने आई कि मंच के पास मौजूद एक व्यक्ति पर एक 10 वर्षीय बालिका के साथ दुष्कर्म का गंभीर आरोप दर्ज है, और वह लगभग 9 माह की न्यायिक हिरासत के बाद वर्तमान में जमानत पर है। आरोप की संवेदनशील प्रकृति के कारण कुछ प्रतिभागियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस बात पर आपत्ति जताई कि ऐसे आरोपित व्यक्ति को साहित्यिक समारोह के मंच के समीप उपस्थित होने की अनुमति क्यों दी गई।

कुछ उपस्थित लोगों के अनुसार आरोपित की रचना पुस्तक "माटी" कि 'विमोचन' भी कार्यक्रम का हिस्सा थी, जो समाज के एक वर्ग के लिए असहजता और आक्रोश का कारण बनी।

*आयोजकों और ‘बुद्धिजीवियों’ का रुख*

सूत्रों के मुताबिक, विरोध दर्ज कराने पर कार्यक्रम से जुड़े कुछ बुद्धिजीवियों ने यह कहते हुए आरोपित व्यक्ति की उपस्थिति का समर्थन किया कि

“जब तक न्यायालय द्वारा दोष सिद्ध नहीं होता, किसी भी नागरिक को सामाजिक, साहित्यिक या सार्वजनिक गतिविधियों से दूर रखना उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।”

उनका कहना था कि समाज को ‘अपराध सिद्ध होने से पहले अपराधी’ कहने से बचना चाहिए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर व्यक्ति को प्राप्त है।

*विरोधी पक्ष की प्रतिक्रिया और असहमति*

विरोध कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस तर्क को कड़ी आपत्ति के साथ खारिज करते हुए कहा,“कानूनी अधिकार अपनी जगह सुरक्षित हैं, लेकिन इतने संवेदनशील प्रकरण में पीड़ित परिवार की भावनाओं को नज़रअंदाज़ कर किसी आरोपित को सार्वजनिक मंच देना न्याय और संवेदनशीलता दोनों का अपमान है।”

विरोधियों ने यह भी कहा कि समाज के प्रभावशाली वर्ग द्वारा ऐसे आरोपित व्यक्ति को मंच देना यह दर्शाता है कि सामाजिक नैतिकता पर कानून की ठंडी व्याख्याएं भारी पड़ रही हैं, जो पीड़िता के परिवार के लिए मानसिक और सामाजिक रूप से अत्यंत कष्टदायक है।

*पीड़िता की माँ और सामाजिक कार्यकर्ताओं का तीन घंटे का शांतिपूर्ण आंदोलन*

घटना से आहत पीड़िता की माँ, जो कि एक आदिवासी महिला हैं, ने तुरंत कार्यक्रम स्थल के बाहर शांतिपूर्ण आंदोलन शुरू कर दिया। उनके साथ वार्ड क्रमांक 2 के पार्षद संजय चौधरी, तथा आदर्श, गांधी, संजय विश्वास, राजा, राज, प्रकाश और राहुल नामक समाजसेवी शामिल हुए।

इन सभी ने मिलकर लगभग तीन घंटे तक होटल मंदाकिनी के सामने शांतिपूर्ण धरना दिया और कार्यक्रम में आरोपित की उपस्थिति को सामाजिक संवेदनहीनता की पराकाष्ठा बताया।

*पीड़िता की माँ का भावुक पक्ष

पीड़िता की माँ ने कहा,

“मैं एक साल से न्याय के लिए दर-दर भटक रही हूँ। मेरी बच्ची के साथ जो हुआ, वह कोई सामान्य घटना नहीं है। लेकिन आज जिस तरह एक आरोपित को सम्मान दिया गया, वह मेरे घावों पर नमक छिड़कने जैसा है। मुझे यह देखकर और चोट लगी कि स्वयं को बुद्धिजीवी कहने वाले लोग भी आज एक माँ के दर्द के विरुद्ध खड़े हैं।”उन्होंने इस घटना को केवल व्यक्तिगत पीड़ा नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और नैतिकता पर बड़ा प्रश्नचिह्न बताया।        

*समाज के लिए बड़ा सवाल: संवेदनशीलता बनाम कानूनी अधिकार?*

यह विवाद अनूपपुर में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म देता है,क्या समाज की जिम्मेदारी सिर्फ कानूनी ढांचे तक सीमित है, या सामाजिक संवेदनशीलता, नैतिक मूल्य और पीड़ित पक्ष की भावनाएँ भी निर्णयों का हिस्सा होनी चाहिए?

जहाँ एक ओर बुद्धिजीवी वर्ग संविधान और मौलिक अधिकारों की बात करता है, वहीं दूसरी ओर पीड़िता पक्ष का दर्द यह दर्शाता है कि नैतिकता, सहानुभूति और न्याय के बीच संतुलन अभी भी समाज के सामने एक चुनौती है।

अंत में‘गूँज’ पुस्तक के विमोचन समारोह में उठे इस विवाद ने साहित्यिक क्षेत्र के भीतर एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा कर दिया है,

क्या साहित्यिक मंचों का दायित्व केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा तक सीमित है, या समाज की संवेदना और पीड़ितों की आवाज़ को भी उसमें स्थान मिलना चाहिए?

इस घटना ने निश्चित रूप से यह सोचने पर मजबूर किया है कि समाज में ‘बुद्धिजीवी’ कहलाने वाले वर्ग को अपनी भूमिका के प्रति अधिक जिम्मेदार और संवेदनशील होने की आवश्यकता है।

*इनका कहना है*

“हमारे समाज में न्याय और संवेदनशीलता को सर्वोपरि माना गया है, लेकिन आज जिस तरह एक गंभीर प्रकरण के आरोपित को मंच दिया गया, वह पूरी तरह से अनुचित है। हम कानून का सम्मान करते हैं, परंतु कानून का सम्मान करने का अर्थ यह नहीं है कि पीड़ित परिवार की भावनाओं को रौंद दिया जाए। जिस माँ ने न्याय के लिए एक साल से संघर्ष किया है, उसके सामने ऐसे आरोपित को सम्मान देना समाज की आत्मा को झकझोरने वाला है।”

:- समाजसेवी संजय चौधरी (पार्षद वार्ड क्रमांक 2 )

“साहित्यिक कार्यक्रम ज्ञान और संवेदनशीलता के प्रतीक होते हैं, लेकिन यदि ऐसे मंचों पर आरोपित व्यक्तियों को बुलाया जाने लगे, तो यह संदेश जाता है कि समाज की नैतिकता कहीं पीछे छूट गई है। हम शांतिपूर्ण तरीके से इसलिए खड़े हुए ताकि यह बताया जा सके कि किसी भी बुद्धिजीवी या प्रभावशाली व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह पीड़ित परिवार की पीड़ा को पहले समझे, बाद में मंच सजाए।”

:- समाजसेवी अनुराग बॉक्सला (गाँधी) 

“एक आदिवासी माँ का दर्द किसी मंच, किसी कार्यक्रम या किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा से बड़ा है। जब वह माँ कहती है कि उसके घावों पर नमक छिड़का गया है, तो यह पूरे समाज के लिए शर्म की बात है। हम महिलाएँ सिर्फ न्याय की बात नहीं करतीं, हम संवेदना और सम्मान की भी बात करती हैं। ऐसे संवेदनशील मामलों में समाज के प्रभावशाली लोगों को बेहद सोच-समझकर कदम उठाने चाहिए, न कि पीड़ित परिवार के ज़ख्म गहरे करने चाहिए।”

:- महिला नेत्री एडवोकेट सीमा बिस्वास  

“तीन घंटे का हमारा शांतिपूर्ण धरना किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि उस सोच के खिलाफ था जो पीड़ित के दर्द से ज्यादा आरोपित के अधिकारों को बड़ा मानती है। हम सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि अदालतें कानून देखती हैं, पर समाज को मानवता और संवेदनशीलता देखनी चाहिए। एक पीड़ित माँ अगर न्याय के लिए लड़ रही है, तो साहित्यिक मंचों को भी उसके साथ खड़ा दिखना चाहिए।”

 :- युवा सामाजिक कार्यकर्ता आदर्श मार्टिन



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